भ्रमित सुख जो यथार्थ में दुख रूप ही है – जैनाचार्य विमर्शसागर
एटा (मनोज नायक) संसारी जीव संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक प्रकार के दुखों को प्राप्त होता रहता है । संसार में प्राणियों को कभी भी, कहीं पर भी सुख प्राप्त नहीं होता । अपितु तीव्र दुखों में ही जब कमी होती है, उन दुखों की हीनता को ही भ्रमवश अल्पदुखों को ही सुख मान बैठता है और इस भ्रमित सुख में मसगूल हो जाता है । अरिहंत, परमात्मा और सदगुरु भव्य जीवों को समझाते हैं कि भव्यात्माओं अपने जीवन में धर्म की महत्ता को समझो, धर्माचरण को स्वीकार करो, सच्चे सुख की पहिचान करना सीखो और सांसारिक भ्रमित सुख जो यथार्थ में दुख रूप ही है, ऐसे भ्रमजाल से बाहर निकलकर आत्मा के वास्तविक शाश्वत सुख, परमात्व सुख को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करो । ऐसे शाश्वत सुख को प्राप्त करना ही, धर्म के फलों को प्राप्त करना ही इस जीवन का ध्येय होना चाहिए । उक्त उद्गार भावलिंगी दिगम्बराचार्य विमर्श सागर महाराज ने श्री पार्श्वनाथ जिनालय एटा में धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए ।
कोई आपसे पूछे -धर्म करने से क्या होता है ? धर्म की जीवन में क्या महत्ता है ? तो उनसे कह देना – लोक में सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर अरिहंत परमात्मा धर्म के ही सर्वोत्कृष्ट फल को प्राप्त हुए हैं । धर्म को धारण पालन करने से ही हमारे बीच रहने वाले सामान्य मनुष्य भी पुज्यता, पवित्रता, पावनता को प्राप्त होते हुए देखे जा सकते हैं ।
तीर्थंकर भगवान के 46 मूलगुणों में एक अतिशय होता है उपसर्ग का अभाव अर्थात अरिहंत परमात्मा पर कभी उपसर्ग नहीं होता । बंधुओं तीर्थंकर भगवान की तो ऐसी महिमा है कि बैर क्रूर प्राणी भी बैर भाव को त्यागकर, मैत्रिभाव को प्राप्त होते हैं । तब कोई भी प्राणी उनके समीप आता है तो स्वमेव ही भावो की शुद्धि को प्राप्त करता है, अतः उपसर्ग का अभाव रहा है । त्रिलोक पूज्य ऐसे तीर्थंकर भगवान को जो भव्य प्राणी अपने ह्रदय में धारण करते हैं वह भी अपने जीवन में आने वाले अनेक उपसर्ग, संकटों का निवारण सहज ही कर देता है ।