जैन वंशीय भाबु गोत्र एवं दादी कोठी का इतिहास

History of Dadi Kothi
History of Dadi Kothi

प्राचीन परम्परा है कि हम कोई भी शुभ कार्य करने से पहले बड़े-बुजुर्गों से आशीर्वाद लेकर उनकी आज्ञानुसार कार्य करते हैं। इसी के अनुसार भाबु गोत्र को मानने वाले हर शुभ अवसर पर अपने बुजुर्गों दादी वीरो, दादी वीनी, बाबा कालू जी और अन्य दादी व बाबा जी को नतमस्तक होकर प्रार्थना करते हैं। पैसे धोने की प्रथा भी इनमें एक है। जब कोई नया कार्य शुरू करना होता है तो सबसे पहले अपने बड़े बुजुर्गों को याद करके पैसे धोकर रखे जाते हैं और उन इक_े हुए पैसों को धार्मिक कार्यों में खर्च किया जाता है।

उत्पत्ति – इतिहास

राजस्थान की ओसिया नगरी में राजा उप्पलदेव राज करते थे। कहा जाता है कि उनके जैन धर्म के प्रभाव में आकर जैन धर्मी बनने के बाद उनके मंत्री भाबु शाह ने भी जैन धर्म अपना लिया। उन्हीं के नाम से भाबु गोत्र चला।

बाबा कालू, दादी वीरो एवं दादी वीनी जी – लगभग 400 वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज बाबा कालू शाह जी हुए, जो वर्तमान होशियारपुर से 30 कि.मी. दूर नालपुरा गांव, जो आज कोठी गांव (श्री दादी कोठी जी) के नाम से प्रसिद्ध है, में रहते थे। तब इस इलाके का सूबेदार एक मुसलमान था। एक बार बाबा कालू शाह जी अपने नाई के साथ घोड़े पर सवार होकर शहर की तरफ जा रहे थे।

रास्ते में एक नवविवाहित जोड़ा घबरा कर भागता दिखा। बाबा कालू ने उन्हें रोक कर पूछा तो उन्होंने बताया कि हमारी शादी हुए अभी कुछ दिन ही हुए हैं। मेरी पत्नी की सुंदरता देखकर यहां का सूबेदार इसे छीनना चाहता है। उसके सिपाही हमारे पीछे आ रहे हैं। आप ही इस लाचार ब्राह्मणी की जान बचाइए, आपका बहुत पुण्य होगा। बाबा कालू जी ने कहा आप मेरे घोड़े पर सवार होकर सुरक्षित स्थान पर चले जाओ। History of Dadi Kothi

History of Dadi Kothi
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मैं सूबेदार के सिपाहियों को समझाऊंगा, अगर न समझे और उनसे लडऩा भी पड़ा तो लड़ूंगा लेकिन जीते जी उन्हें इस रास्ते से आगे नहीं जाने दूंगा। आप बिना देरी किए यहां से निकल जाओ। ब्राह्मण दम्पति ने उनके चरण स्पर्श किए और उनका आशीर्वाद लेकर घोड़े पर सवार होकर अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। कुछ देर बाद सूबेदार के सिपाही उसी जगह आ गए, जहां बाबा कालू जी खड़े थे। उन्होंने बाबा कालू जी से उस नवविवाहित जोड़े के बारे में पूछा तो बाबा जी ने उन्हें समझाया कि सिपाही का धर्म लाचार की सेवा-सहायता करना है परन्तु अगर हाकिम जुल्म करे तो जुल्म को सहना भी कायरता है।

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बाबा कालू ने कहा कि मैं जैन हूं, हम किसी की हिंसा नहीं करते, लेकिन असहाय तथा औरत की सहायता करना हमारा धर्म है इसलिए मैं आपको यहां से आगे नहीं जाने दूंगा। इस पर सिपाहियों ने तलवारें निकाल लीं। बाबा कालू जी और उनके नाई दोनों ने सिपाहियों का मुकाबला किया लेकिन दोनों वीरगति को प्राप्त हो गए।

इधर घर में दादी वीरो जी अपनी नाइन से सिर गुंथवा रही थीं। तभी बाहर शोर सुन कर वे बाहर दौड़ीं। गांव के भाई-बंधु गमगीन शक्ल में उनके घर में दाखिल हुए तो दादी वीरो जी ने पूछा कि क्या बात है? उन्होंने उत्तर दिया कि बाबा जी एक अबला की लाज बचाते-बचाते वीरगति पा गए। History of Dadi Kothi

उस दिन शुक्रवार था।घर में कोहराम मच गया। शाम हो चुकी थी, इसलिए गांव वालों ने अगले दिन बाबा जी का शव लाने का फैसला किया। रविवार के दिन जब बाबा जी का शव दाह संस्कार के लिए चिता पर रखा गया तो दादी वीरो जी ने भी सती होने का निश्चय किया। तब सब ने हाथ जोड़ कर उनसे विनती की कि आप जाने से पहले कुछ उपदेश दीजिए।

तब उन्होंने कहा कि भाबु वंश वालो, हर काम ईमानदारी से करो, गृहस्थ का सुख भोगो लेकिन अपनी जिम्मेदारियां न भूलो, किसी का दिल न दुखाओ, किसी पर जुल्म न करो, कमजोरों की सहायता करो और प्राणी मात्र पर दया करो। इतना कह कर दादी जी चिता में प्रवेश कर गईं। जिस दिन बाबा जी शहीद हुए, उस दिन शुक्रवार था और जिस दिन उनका संस्कार किया गया, उस दिन रविवार था। अत: भाबु वंश वाले इन दोनों दिनों पर उनके नाम का माथा नहीं टेकते।

दादी वीनी जी का इतिहास : बाबा कालू जी के साथ गए नाई (तब नाई को राजा और नाइन को रानी कहने की प्रथा थी), का संस्कार करने लगे तो रानी वीनी भी अपने पति की चिता में प्रवेश कर गईं।

लोगों ने उनके नाम का जयकारा लगाया। उसके बाद लोगों ने तय किया कि जब भी भाबु वंश वाले माथा टेकें तो दादी वीनी जी को भी माथा टेकें।

होशियारपुर से कुछ दूरी पर स्थित यह स्थान दादी कोठी जी आज भी उनके मानने वालों के लिए श्रद्धा का केन्द्र है।
हर साल आषाढ़ सुदि दशमी को यहां उनकी याद में बहुत बड़ा आयोजन होता है। हर वर्ष की तरह इस बार भी यह महोत्सव 18 जुलाई दिन वीरवार को दादी कोठी, होशियारपुर में मनाया जा रहा है।

source – mitesh jain

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